घुमावदार
रास्ते की तरफ मुड कर देखा
गांव
काफी दूर छुट गया था.
रोटी
यां सेकती झोपडीयों से निकलती धुयें की लकीरे
भी
मद्धम पड़ गयी थी.
प्यास
थी और भूख भी लगी थी
लेकिन
गरीब गांव उभर रहा था सुखे की चपेट से
सो
ऐसे ही निकल पडा था.
रस्ते
भर साथ निभाने के लिये लाया था एक अकेलापन
और
एक अबूझ पहेली सा खुद का साथ.
सुना
है अब गांव के सारे पनघटों ने दम तोड दिया है
सुना
है अब गांव में बंजारे नही आते
सुना
है अब खुशहाली के लिये बांध भी बन गया है
सुना
है अब सारे चेहरे बदल गये है गांव के .
अब
नये गांव में मन नही लगता,
अब
पुराना गांव अपना नही रहा.
डॉ.
निलेश हेडा
२६ सितंबर २०१२
शाम
६.३०
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