Sunday, November 11, 2012

धुंद है जो छटने का नाम ही नही लेती


धुंद

धुंद है
 
जो छटने का नाम ही नही लेती
बदलते सारे मौसम कोहरे की चादर में ही आते है
मकडी़ के जाले जैसा फैला अतीत
और
 
किसी अंजाने गांव की पडडंडी यों जैसा भविष्य

आदिवासी गांव की सांझ जैसा लगता है सबकुछ
 
दिनभर की भागादौड के बाद सुस्ताता हुआ महुआ का पेड.

निलेश. १६ अगस्त २०१२


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