Monday, November 19, 2012

गालियां

यह शाम का
थ़का थ़का सा अंधेरा
और नुक्कड पर
बुजुर्गों को गालियां बकते कुछ जवान बच्चे.
यह बच्चे,
बुजुर्गों को जिम्मेवार ठहराते है
इस शाम के उकतायें हुये अंधेरों के लिये.
यह बच्चे,
अपनी हतब़लता को द़बाये
कुर्सीयां तोडते बूढे़ नेतृत्व को गालियां बकते है
और बदसुरत पंडीतों की फौज दौड पडती है
मंदिरों की ओर शांती की प्रार्थना करने के लिये.
कई बार प्रार्थना के साथ शाप भी दिया जाता है बच्चों को.  

इन जवां बच्चो ने पढा़ है विज्ञान और देखे है
सामाजीक उथलपुथल के अनगिनत पॅटर्नस.
इन बच्चो ने पढे़ है सामाजिक न्याय और समता के
मार्क्स और ऐंजेल के खुबसुरत प्रमेय,
और पाया है धार्मिक उन्माद को मानवता का पागलपन.

बुजुर्गों और पंडीतों की दोस्ती युगों से कारण बनती आई है
बच्चो के उन्मादी गालियों के लिये.

डॉ. निलेश हेडा
१९ नवंबर २०१२
शाम ६.३०

Sunday, November 11, 2012

धुंद है जो छटने का नाम ही नही लेती


धुंद

धुंद है
 
जो छटने का नाम ही नही लेती
बदलते सारे मौसम कोहरे की चादर में ही आते है
मकडी़ के जाले जैसा फैला अतीत
और
 
किसी अंजाने गांव की पडडंडी यों जैसा भविष्य

आदिवासी गांव की सांझ जैसा लगता है सबकुछ
 
दिनभर की भागादौड के बाद सुस्ताता हुआ महुआ का पेड.

निलेश. १६ अगस्त २०१२


अब के तुफान ने बहुत रुलाया


अब के तुफान ने बहुत रुलाया

उस तुफान की सारी निशानीयां देख सकती हो
आंखो मे
चेहरे पर पढ सकती हो उसके बदसुरत निशान
कहते थे, और मै भी दिलासा दिया करता था
की जब एक से दो हो जाये तो तुफान का सामना होता है
मगर पाया हमेशा आंधीयों मे अकेले खुद को झुजते, झुंजलाते
एक से दो होने पर भी बाकी है
वहीं खामोश सा अनेकापन…….
दिया था अपना गर्म हाथ मेरे माथे पर
अब भी बिजली भरी रातों मे महसुस करता
हू तुम्हारे हाथों की गर्मी
और
तुम्हारे सांसो की सरसराहट……………..
(Saturday, June 11, 2011)

याद है सब कूछ अब तक


याद है सब कूछ अब तक

कुछ नही भुला
एक सरसराहट आती
और
थंडी हवा छु जाती तो सिहर उठता
कहता शायद तुम आसपास ही हो.

लोड शेडींग के दिन थे वो
और तुफानी रात भी
तुमने कहा था
“क्या बच्चो की तरह बिजलीयों से डरते हो…….”
और रख दिया था अपना गर्म हाथ मेरे माथे पर
अब भी बिजली भरी रातों मे महसुस करता
हू तुम्हारे हाथों की गर्मी
और
तुम्हारे सांसो की सरसराहट……………..
(Saturday, June 11, 2011)

जीवन नहीं होता घडी की सुई सा


जीवन नहीं होता घडी की सुई सा
की,
सुईंयों को पीछे घुमाकर
समय ठिक कर ले.

जहां सुई हैं
वहीं से समय को
ठीक करने की कवायद करनी होती है.

जीवन नही होता अ-रुपांतरणीय
मिलता है मौका हमेशा ही
विष से अमृत के रुपांतरण का.

जहां है वहां से
रुपांतरण की संभावना
हमेशा ही प्रबल होती है.
डॉ. निलेश हेडा
६ नवंबर २०१२


अब पुराना गांव अपना नही रहा.


घुमावदार रास्ते की तरफ मुड कर देखा
गांव काफी दूर छुट गया था.
रोटी यां सेकती झोपडीयों से निकलती धुयें की लकीरे
भी मद्धम पड़ गयी थी.

प्यास थी और भूख भी लगी थी
लेकिन गरीब गांव उभर रहा था सुखे की चपेट से
सो ऐसे ही निकल पडा था.

रस्ते भर साथ निभाने के लिये लाया था एक अकेलापन
और एक अबूझ पहेली सा खुद का साथ.

सुना है अब गांव के सारे पनघटों ने दम तोड दिया है
सुना है अब गांव में बंजारे नही आते
सुना है अब खुशहाली के लिये बांध भी बन गया है 
सुना है अब सारे चेहरे बदल गये है गांव के  .

अब नये गांव में मन नही लगता,
अब पुराना गांव अपना नही रहा.

डॉ. निलेश हेडा
२६ सितंबर २०१२
शाम ६.३०

उस निष्पर्ण में

उस निष्पर्ण में फिर से उग रही है कोंपले
जीवन से भरी नन्ही नन्ही पत्तीयों से ढक रहा है खुद को
किस आकाष को छुना है उसे, किस दिशा में बढेगी ये हरित रेखा 
कर लिया है उसने तय

आकाष की कोई सिमा नही होती
दिशाओं का कोई बंधन नही होता.

निलेश. १५ अगस्त २०१२




कुछ तो घट रहा है................


कुछ तो घट रहा है................

कुछ तो उबल रहा है,
कुछ तो पक रहा है.

बेसबब ही तो नही यह आकारहीनता
बेसबब ही तो नही ये रिक्तता
कुछ तो है जो है आतुर एक आकार पाने को 
कुछ तो है जो है आतुर शुण्यता भरने को.

उडान और स्थिरता में 
एक ही क्षण का तो अंतर होता है.

निलेश. १५ अगस्त २०१२