उस निष्पर्ण
में फिर से उग रही है कोंपले
जीवन से भरी नन्ही नन्ही पत्तीयों से ढक रहा है खुद
को
किस आकाष को छुना है उसे, किस दिशा में बढेगी ये हरित
रेखा
कर लिया है उसने तय
आकाष की कोई सिमा नही होती
दिशाओं का कोई बंधन नही होता.
निलेश. १५ अगस्त २०१२
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