Sunday, November 11, 2012

उस निष्पर्ण में

उस निष्पर्ण में फिर से उग रही है कोंपले
जीवन से भरी नन्ही नन्ही पत्तीयों से ढक रहा है खुद को
किस आकाष को छुना है उसे, किस दिशा में बढेगी ये हरित रेखा 
कर लिया है उसने तय

आकाष की कोई सिमा नही होती
दिशाओं का कोई बंधन नही होता.

निलेश. १५ अगस्त २०१२




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